उत्तराखंडसंस्कृति एवं संभ्यता

ऐतिहासिक देवलांग पर्व की तैयारियों में जुटे हैं ग्रामीण

उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की रवाईं घाटी में पौराणिक सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप त्योहारों व उत्सवों को बड़े स्तर पर मनाने के रीति-रिवाज पौराणिक काल से चले आ रहे हैं। यही कारण है कि रवाईं घाटी के लोगों द्वारा त्योहारों को अनूठे रूप में मनाए जाने से प्रत्येक त्योहार अपनी अलग ही विशिष्टता प्रदान करते हैं। ऐसे ही विशिष्टता प्रदान करने वाला त्यौहार है देवलांग। यह त्योहार दीपावली के ठीक एक महीने बाद मनाया जाने वाला मंगसीर की बग्वाल के रूप में मनाया जाता है। अमावस की रात को मनाए जाने वाला देवलांग का यह पर्व उत्तरकाशी की रवाईं घाटी में प्रमुख रूप से बनाल पट्टी के गैर गांव में मनाया जाता है। इसके साथ ही ठकराल पट्टी के गंगटाड़ी तथा वजरी पट्टी के कुथनौर गांव में भी मनाया जाता है।
उत्तरकाशी जिले के बड़कोट तहसील मुख्यालय से करीब 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बनाल पट्टी के गैर गांव में देवलांग का पर्व मनाया जाता है। देवलांग के इस पर्व की तैयारी बनाल पट्टी क्षेत्र में साठी और पानशाही तोक के ग्रामीण एक महीने पहले ही शुरू कर देते हैं तथा तैयारियों के सभी कार्य प्राचीन काल से चली आ रही सभ्यता के अनुरूप बंटे हुए हैं। यहां देवलांग के लिए पहले ही छिलके तैयार किए जाते हैं जो निश्चित गांव के लोग तैयार करते हैं। अमावस्या के दिन गांव के लोग व्रत रखकर बड़ी श्रद्धा के साथ देवदार के लंबे साबुत पेड़ को मंदिर प्रांगण में लाते हैं तथा विशेष पूजा-अर्चना के साथ पेड़ के बाहर छिलके बांधकर उसे तैयार करते हैं। रात्रि में गांव-गांव से ग्रामीण ढोल-नगाड़ों के साथ अलग-अलग समूह में नाच गाकर गैर गांव पहुंचते हैं। जहां पूरी रात ढोल नगाड़ों की थाप पर नाच-गानों के साथ बिताई जाती है और सुबह होने से पहले देवदार के इस पेड़ पर आग लगा कर इसे खड़ा करते हैं। यह पेड़ रात खुलने तक जलता रहता है। बनाल पट्टी के गांव दो तोक में बंटे हैं। एक साठी और दूसरा पानशाही। साठी और पांसाई तोक के लोग इस पेड़ को खड़ा करते हैं। जिसे देवलांग कहते हैं। देवलांग अर्थात देवता के लिए लाया गया देवदार का लंबा वृक्ष। देवलांग नीचे से ऊपर की ओर जलती चली जाती है। जिसे देख कर आभास होता है कि एक सुंदर सा दीपस्तंभ जल रहा हो। यह दृश्य देखने लायक होता है जिसे देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग दूर-दूर से यहां पहुंचते हैं। देवलांग देवताओं को प्रसन्न करने का एक प्रयास है तथा इसे प्रभु की ज्योति के रूप में अज्ञान व अंधकार को हरने वाले उजाले के रूप में भी देखा जाता है। गैर गांव निवासी पंडित सूर्य मोहन गैरोला बताते हैं कि गैर गांव में लगने वाले देवलांग का यह पर्व अनादिकाल से चलता आ रहा है तथा यह मंगसीर के महीने की अमावस की रात को ही मनाया जाता है। यह त्योहार एक प्रकार से सूक्ष्म मृत्यु का स्वरूप है और दिन जीवित हो जाने का समय है। ह्यअसतो मां ज्योतिर्गमयह्ण अर्थात हे प्रभु हमें अंधेरी से उजाले की ओर ले चल। अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने वाला यह पर्व देवलांग है।

26 नवम्बर  को होगा देवलांग मेले का आयोजन
देवलांग का यह मेला प्रत्येक साल मंगसीर में अमावस्या को मनाया जाता है। इस बार शुक्रवार 7 दिसंबर को देवलांग मेले का आयोजन किया जा रहा है। मेले के इस दौरान सभी गांव से मेलार्थियों के समूह ढोल-नगाड़ों के साथ मेले में पहुंचते हैं। इस दौरान साठियों पानशाहियो रात बियाणी…, सेत फुलूड़े झुमाइलो… जैसे लोक गीत अनायास ही लोगों को नाचने-गाने के लिए विवश कर देते हैं तथा ये पौराणिक लोक गीत हमें खास कर देवलांग के इस मौके पर ही सुनने को मिलते हैं। मेले में दिन से ही मेलार्थियों की भीड़ जुटनी शुरू हो जाती है। सुबह 4-5 बजे शुभ मुहूर्त के हिसाब से देवलांग को खड़ी करते हैं और सुबह तक मेला मनाया जाता है।

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