सामाजिक सरोकार

कबाड़ का धंधा कर हम तो ‘कबाड़ी’ बन गए जी !

पंकज भार्गव
2 अक्टूबर, 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की शुरूआत से लेकर आज तक आए दिन राजनेता, सरकारी अफसर और समासेवक हाथ से झाड़ू बांझते हुए मीडिया की सुर्खियों में नजर आते रहते हैं। वहीं आमजनता अभी इस अभियान के उद्देष्यों और लक्ष्य को लेकर भ्रमित ही नजर आ रही है। जिसकी सबसे बड़ी वजह घरों से निकलने वाले कूड़े-कचरे के निस्तारण को लेकर किसी भी तरह की ठोस पहल का न होना कहा जा सकता है। गली-मोहल्लों के घरों से निकलने वाला कचरा और कबाड़ आज भी पूरी तरह कबाड़ियों द्वारा ही उठाया जा रहा है, हैरानी की बात यह है कि इस परंपरागत तरीके की बेहतरी और कबाड़ियों को प्रोत्साहित करने को लेकर सरकार या किसी भी बुद्धिजीवी ने किसी भी तरह की कोई पहल नहीं की है।
साफ-सफाई की जाए तो घरों से निकलने वाले कचरे और प्लास्टिक के उठान में कबाड़ियों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। गर्मी, सर्दी या बरसात जो भी मौसम हो षायद ही कोई ऐसा दिन ऐसा रहता होगा जब घर के बाहर कबाड़ी की आवाज न सुनाई देती हो। घर से निकलने वाले कचरे जिसमें अखबार की रद्दी, प्लास्टिक, कांच आदि के बदले में वे लेने की जगह उल्टा तोल के हिसाब से पैसा भी देकर जाते हैं। इस पैसे को लेकर मोलभाव में भी अक्सर कबाड़ी को ही हार माननी पड़ती है। घरों से इकट्ठा किए गए कबाड़ को बड़े कबाड़ी तक पहुंचाना और फिर वहां भी मोलभाव को लेकर तकरार एक कबाड़ी की दिनचर्या का हिस्सा होता है।
कबाड़ की दुकान चलाने वाले धर्मवीर सिंह कहते हैं कि असंगठित क्षेत्र होने के कारण इस धंधे में सरकार की किसी तरफ से किसी भी तरह की कोई सुविधा नहीं मिलती है। वह कहते हैं कि कभी छुट्टी या आराम करने की बात तो बेईमानी लगती है। बेहद आहत करने वाली बात ये है कि समाज में इस धंधे को गिरे हुए स्तर के नजरिये से देखा जाता है। वह यह भी कहते हैं, ‘कबाड़ का धंधा करके हम तो ‘कबाड़ी’ बन गए जी ! ’।
कूड़े-कचरे के निस्तारण और प्रबंधन की दिशा में समय रहते सोचा जाना और परंपरागत तरीकों को बेहतर बनाया जाना बेहद अहम है, तभी स्वच्छ भारत के सपने को साकार होते देखा जा सकता है।

Key Words : Sa We became a ‘junk’ by doing junk business!

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