सामाजिक सरोकार

विडम्बना : अपनी भाषा में न्याय पाने से वंचित भारतीय

रोहित श्रीवास्तव

भारत अपने आप में दुनिया का अनोखा देश है इस बात को आप ऐसे समझ सकते हैं कि आजादी के ७० वर्ष बाद भी भारतीय अपनी भाषा में न्याय पाने से वंचित हैं .. क्यों? आज भी भारतीय उच्चतम न्यायलय एवं उच्च न्यायालय की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी ही है। पिछले दिनों भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने दो बड़े फैसले दिए हैं जिनमे से एक है ‘ट्रिपल तलाक’ के मुद्दे पर और दूसरा ‘निजता के अधिकार’ पर। दोनों ही फैसले भारत के सामाजिक और राजनैतिक चिंतन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालेंगे, लेकिन जिस तरह से इन फैसलों को अकादमिक क्षेत्रों में लिया जायेगा। क्या सामाजिक स्तर पर भी आम लोगों में भी वैसी चर्चा होगी, शायद नहीं।

एके गोपालन बनाम मद्रास राज्य, शंकरी प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य,केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, इंदिरा नेहरु गाँधी बनाम राज नारायण, मेनका गाँधी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, हुसैन आरा खातून बनाम बिहार राज्य, मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बनो बेगम, इंदिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, विशाखा बनाम राजस्थान राज्य, सरला मुद्गल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, डी. के. बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, एम.सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया आदि फैसलों ने भारतीय राजनैतिक-सामाजिक चिन्तन एवं प्राशसनिक व्यवस्था को एक दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। लेकिन क्या आमजन इन फैसलों से आये बदलाव को समझने से केवल इस वजह से वंचित कर दिए जायेंगे क्यूंकि वो अंग्रेजी समझने में सक्षम नही है?

सन्देश कैसा भी हो, प्रभावी तभी होगा जब सन्देश उन लोगों तक उनकी भाषा में पहुंचे जिन्हें वह प्रभावित करना चाहता है। क्या हमारी अदालतें ख्सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट, बदलाव को समझने के लिए तैयार है? आज भी हमें अर्थात ‘हम भारत के लोग’ अपनी अदालतों से अपनी भाषा में न्याय पाने के लिए प्रयासरत है। सोचिये अगर ये सभी फैसले हमारी अदालतोख्सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट, की वेबसाइट पर हिंदी या सम्बंधित राज्य की स्थानीय भाषाओ में भी पीडीएफ फॉर्मेट में उपलब्ध हो जाते तो भारतीय न्यायिक फैसलों की पहुँच कितनी बढ़ जाती। आम जन भी उन फैसलों की बारीकियों को आसानी से समझ सकता।

१३ सितम्बर १९४९ को संविधान सभा की बैठक में पंडित जवाहर लाल नेहरु ने कहा था, विदेशी भाषा आम जन की भाषा नहीं हो सकती और विदेशी भाषा के जरिये कोई भी देश महान नही बन सकता। १४ सितम्बर १९४९ को संविधान सभा में बहस के बाद एक मत से निर्णय लिया गया कि हिंदी भारत की राजभाषा होगी, न कि राष्ट्र भाषा। क्योंकि कुछ राज्य हिंदी के पक्ष में नही थे और आम सहमति नही थी इसलिए अंग्रेजी को भी हिंदी के साथ राजभाषा का दर्जा दिया गया।

संविधान के भाग दृ १७, अध्याय दृ १ में संघ की राजभाषा से सम्बंधित प्रावधान किये गये है जिसके अनुसार दृ
“अनुच्छेद दृ ३४३(१) में कहा गया है दृ संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंको का रूप भारतीय अंको का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।

अनुच्छेद दृ ३४३(२) में कहा गया है दृ खंड(१) में किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारंभ से १५ वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश द्वारा, संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का और भारतीय अंको के अंतर्राष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा। केवल १५ वर्षों के लिए १९६५ तक के लिए अंग्रेजी की व्यवस्था की गई थी ताकि जिन राज्यों में हिंदी नही बोली जाती उन प्रदेशों में हिंदी का प्रचार-प्रसार हो सके। लेकिन १९६५ में यह प्रस्ताव पारित हुआ की सभी सरकारी कार्यों में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का भी सह-राजभाषा के रूप में प्रयोग होता। १९६७ में ‘भाषा संसोधन विधेयक’ संसद में पारित कर राजकाज में अंग्रेजी को अनिवार्य कर दिया।न्यायालय की कार्यवाही राज्यपाल के आदेश द्वारा एवं राष्ट्रपति की सहमति से हिंदी या उस राज्य की राजभाषा में किये जा सकते हैं इसके लिए किसी कानून की आवश्यकता नही है।

दरअसल संविधान के प्रावधान स्पष्ट हैं, लेकिन १९६५ का कबिनेट नोट है जो कि इस रास्ते में रुकावट बना हुआ है जिसके तहत उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय की भाषा में बदलाव करने से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश की सहमति जरुरी है। हाल ही में संसदीय समिति ने केंद्र सरकार से १९६५ के उस कैबिनेट नोट पर पुनरूविचार करने को कहा है ताकि भाषाई स्तर पर इस रुकावट को दूर किया जा सके। उम्मीद है सकारात्मक बदलाव आयेगा।

इसी दौरान १४ सितम्बर २०१७ को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न्यायिक कार्यवाही में हिंदी को बढ़ावा देने के उद्देश्य से ३ निर्णय हिंदी में देकर एक सकारात्मक पहल की है। उम्मीद है ऐसी पहल भारतीय न्याय व्यवस्था में लोगों का भरोसा मजबूत करेंगी और लोगों को न्याय उनकी भाषा में मिले यह सपना भी एक दिन जरुर पूरा होगा।

(लेखक देहरादून सिविल कोर्ट में अधिवक्ता हैं।)

 

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