स्वास्थ्य

औषधीय गुणों का खजाना है काफल

उत्तराखंड में पाया जाने वाला काफल गर्मी के मौसम मेें ये फल थकान दूर करने के साथ ही तमाम औषधीय गुणों से भरपूर है। इसके सेवन से स्घ्ट्रोक और कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा कम हो जाता है। एंटी-ऑक्सीडेंट तत्व होने के कारण इसे खाने से पेट संबंधित रोगों से भी निजात मिलती है। इसके पेड़ ठंडी जलवायु में पाए जाते हैं। इसका लुभावना गुठली युक्त फल गुच्छों में लगता है।

प्रारंभिक अवस्था में इसका रंग हरा होता है और अप्रैल माह के आखिर में यह फल पककर तैयार हो जाता है, तब इसका रंग बेहद लाल हो जाता है। काफल में मौजूद एंटी-ऑक्सीडेंट तत्व पेट से संबंधित रोगों को खत्म करते हैं। इसके फल से निकलने वाला रस शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा देता है। इसके निरंतर सेवन से कैंसर एवं स्ट्रोक जैसी बीमारियों का खतरा कम हो जाता है।

इसके तने की छाल का सार, अदरक तथा दालचीनी का मिश्रण अस्थमा, डायरिया, बुखार, टाइफाइड, पेचिश तथा फेफड़े ग्रस्त बीमारियों के लिए अत्यधिक उपयोगी है। इसके पेड़ की छाल का पाउडर जुकाम, आँख की बीमारी तथा सरदर्द में सूँधनी के रूप में प्रयोग में लाया जाता है।
खट्टा-मीठा मिश्रित स्वाद युक्त यह फल तीखी गर्मी से भी राहत प्रदान करता है। गर्मियों में यह फल पक्षियों का भी आहार बनता है। काफल एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों के कारण शरीर के लिए बेहद फायदेमंद है।

काफल से जुड़ी ये कहानी है बेहद मार्मिक

काफल से जुड़ी एक कहानी भी। कहा जाता है कि उत्तराखंड के एक गांव में एक गरीब महिला रहती थी, जिसकी एक छोटी सी बेटी थी, दोनों एक दूसरे का सहारा थे। आमदनी के लिए उस महिला के पास थोड़ी-सी जमीन के अलावा कुछ नहीं था, जिससे बमुश्किल उनका गुजारा चलता था। गर्मियों में जैसे ही काफल पक जाते, महिला बेहद खुश हो जाती थी। उसे घर चलाने के लिए एक आय का जरिया मिल जाता था। इसलिए वह जंगल से काफल तोड़कर उन्हें बाजार में बेचती, जिससे परिवार की मुश्किलें कुछ कम होतीं। एक बार महिला जंगल से एक टोकरी भरकर काफल तोड़ कर लाई। उस वक्त सुबह का समय था और उसे जानवरों के लिए चारा लेने जाना था। इसलिए उसने इसके बाद शाम को काफल बाजार में बेचने का मन बनाया और अपनी मासूम बेटी को बुलाकर कहा, ‘मैं जंगल से चारा काट कर आ रही हूं। तब तक तू इन काफलों की पहरेदारी करना। मैं जंगल से आकर तुझे भी काफल खाने को दूंगी, पर तब तक इन्हें मत खाना।’ मां की बात मानकर मासूम बच्ची उन काफलों की पहरेदारी करती रही। इस दौरान कई बार उन रसीले काफलों को देख कर उसके मन में लालच आया, पर मां की बात मानकर वह खुद पर काबू कर बैठे रही। इसके बाद दोपहर में जब उसकी मां घर आई तो उसने देखा कि काफल की टोकरी का एक तिहाई भाग कम था। मां ने देखा कि पास में ही उसकी बेटी सो रही है। सुबह से ही काम पर लगी मां को ये देखकर बेहद गुस्सा आ गया। उसे लगा कि मना करने के बावजूद उसकी बेटी ने काफल खा लिए हैं। इससे गुस्से में उसने घास का गट्ठर एक ओर फेंका और सोती हुई बेटी की पीठ पर मुट्ठी से जोरदार प्रहार किया। नींद में होने के कारण छोटी बच्ची अचेत अवस्था में थी और मां का प्रहार उस पर इतना तेज लगा कि वह बेसुध हो गई। बेटी की हालत बिगड़ते देख मां ने उसे खूब हिलाया, लेकिन तब तक उसकी मौत हो चुकी थी। मां अपनी औलाद की इस तरह मौत पर वहीं बैठकर रोती रही। शाम होते-होते काफल की टोकरी फिर से पूरी भर गई। जब महिला की नजर टोकरी पर पड़ी तो उसे समझ में आया कि दिन की चटक धूप और गर्मी के कारण काफल मुरझा जाते हैं और शाम को ठंडी हवा लगते ही वह फिर ताजे हो गए। अब मां को अपनी गलती पर बेहद पछतावा हुआ और वह भी उसी पल सदमे से गुजर गई। कहा जाता है कि उस दिन के बाद से एक चिड़िया चैत के महीने में ‘काफल पाको मैं नि चाख्यो’ कहती है, जिसका अर्थ है कि काफल पक गए, मैंने नहीं चखे.. फिर एक दूसरी चिड़िया गाते हुए उड़ती है ‘पूरे हैं बेटी, पूरे हैं’।

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