हौसला और सहनशक्ति यानि ‘‘घुमक्कड़ी ’’
पंकज भार्गव
हिंदी यात्रा वृतांत/साहित्य के पितामह कहे जाने वाले राहुल सांकृत्यायन के अनुसार घूमना मानव मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। जीवन की संपूर्णता हासिल करनी है, तो घूमना जरूरी है। मार्क ट्वेन का कहा मानें, आप अपने सुरक्षित बंदरगाह से अपनी नौका बाहर ले जाएं, हवाओं के साथ-साथ आगे बढ़ें, ख्वाब देखें और नई खोज तक पहुंचें। वरना आपका घर भी क्या बुरा है?
‘घुमक्कड़’ सुनने में बड़ा अटपटा-सा शब्द लगता है लेकिन इसमें कई सारे राज छुपे होते हैं। अक्सर लोग घुमक्कड़ व्यक्ति को गैर जिम्मेदार और लापरवाह की श्रेणी में रखकर देखते हैं जबकि मैं अपने अनुभव की बात करूं तो सच्चाई इसके बिलकुल उलट है। घुमक्कड़ी के लिए एक बड़े हौसले और सहनशक्ति की जरूरत होती है। मेरे शब्दों में घुम्मकड़ी रोजमर्रा की जिंदगी से कुछ अलग करने की जिज्ञासा है। इस दौरान मिलने वाली सीख की कोई कीमत नहीं होती ये पल यादगारी बन जाते हैं।
बीते कुछ महीने पहले मुझे पहाड़ के गांव में एक रात गुजारने का अवसर मिला। ‘अतिथि देवो भवः’ की संस्कृति को संजोये इस गांव के लोगों ने इस बात का अहसास ही नहीं होने दिया कि मैं पहली बार यहां आया हूॅं। एक नहीं तकरीबन हर घर के दरवाजे मेरे लिए खुल गये। आत्मीयता की अनुभूति ने यात्रा की पूरी थकान उतार दी। प्रकृति की नजारों के बीच बसे ग्रामीण पुन्ना भाई के आंगन में चूल्हे की चाय की चुस्कियांे का आनन्द किसी फाइव स्टार होटल में बैठकर भी नहीं लिया जा सकता। पुन्ना भाई के परिवार के बुजुर्ग और बच्चों के चेहरों पर अनायास पहुंचे मेहमान के प्रति खुशी के भाव देखते ही बनते थे।पुन्ना भाई तो जैसे उस रात मेरी आवाभगत में कोई कसर न छोड़ने पर उतारू थे। रात के खाने के बाद खुले आसमान के नीचे हम देर रात तक बातचीत करते रहे। सुबह विदा लेते समय पुन्ना भाई का आभार जताने पर उन्होंने कहा ‘आप दोबारा आएंगे तभी हमें लगेगा कि आपको हमारे यहां अच्छा लगा!’ पुन्ना भाई के इन शब्दों में अपनेपन का सार छुपा था। मुझे शहर की सुख सुविधायें न दे पाने की उनकी पीड़ा भी मुझसे छुपी न रह सकी।
घुमक्कड़ी पर निकलते समय अपनी दैनिक जरूरतों और आरामतलबी के साजो समान को साथ ले जाना कतई भी सम्भव नहीं हो सकता। यह बात भी सच है कि घुमक्कड़ी पर निकलने वाला जिज्ञासू अक्सर निरुद्देश्य ही होता है। घुमक्कड़ से बढ़कर कोई भी व्यक्ति समाज का हितकारी नहीं हो सकता। दुनियादारी देखने और सीखने की ललक इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। सही मायनों मंे घुम्मकड़ की तुलना किसी भिक्षुक से करना भी गलत न होगा। व्यवहार, आचार और संस्कार साथ लेकर निकले घुम्मकड़ को कहीं भी किसी तरह की असुविधा नहीं होती। इस राह पर चलने वाले की शारीरिक और मानसिक रूप से दुरुस्त होने की परीक्षा भी होती है।