खुले में शौच से मुक्ति दिलाने का वादा और लक्ष्य

डीबीएल ब्यूरो :
2 अक्टूबर, 2017 को स्वच्छ भारत मिशन के दो साल पूरे हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2019 तक हर घर में शौचालय और खुले में शौच से मुक्ति दिलाने का वादा किया है। सर्वे और मंत्रालय की वेबसाइट पर मौजूद आंकड़ों पर नजर डालें तो स्वच्छता अभियान की अब तक की प्रगति को देखते हुए 2019 तक हर घर शौचालय का लक्ष्य पूरा होना बेहद मुश्किल नजर आ रहा है। वर्ष 2000 से 2015 के बीच केंद्र सरकार ने स्वच्छता कार्यक्रमों पर कुल 33,553 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। जबकि पिछले एक साल 2016 में केंद्र सरकार इस कार्यक्रम पर 2 हजार करोड़ से ज्यादा धनराशि खर्च कर चुकी है।
स्वच्छता अभियान को लेकर तथ्यों का आंकलन किया जाए तो देश में सबसे पहले 1986 में ग्रामीण स्वच्छता अभियान शुरू हुआ था। तब से आज तकचार बार यह लक्ष्य निर्धारित किया जा चुका है। हर घर में शौचालय बनवाने का संघर्ष बहुत पुराना है जिसके लिए अलग-अलग सरकारों ने अपनी मर्जी के मुताबिक नीतियां और कार्यक्रम बनाए।मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने सभी घरों में शौचालय बनवाने के लिए 31 मार्च, 2012 का लक्ष्य रखा था। तत्कालीन सरकार में तो यहां तक चर्चा होने लगी थी कि शौचालय बनाने का काम पूरा होने के बाद शौचालय निर्माण के नाम पर चलने वाले सरकारी कार्यक्रमों का क्या होगा, लेकिन 2010 के आखिर तक स्पष्ट हो गया कि ऐसा होने वाला नहीं है। उस समय भी लक्ष्य हासिल करने के लिए देश को प्रति सेकंड एक शौचालय का निर्माण करना था। देश को बड़ी शर्मिंदगी तब उठानी पड़ी जब भारत संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (एमडीजी) से चूक गया। इसके तहत साल 2015 के आखिर तक आधी आबादी को शौचालय मुहैया कराने थे।
केंद्र सरकार की तरफ से देश का पहला स्वच्छता कार्यक्रम सन 1986 में शुरू आया था। इसका नाम था – केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम (सीआरएसपी) लेकिन इस कार्यक्रम में सामुदायिक भागीदारी न के बराबर थी। इसका जोर अनुदान के जरिये घरों में शौचालय निर्माण कराने पर था। 1993 में केंद्र सरकार ने सीआरएसपी के दिशानिर्देश की समीक्षा कर अनुदान की राशि बढ़ा दी। यह कदम शौचालय निर्माण की गति को बढ़ाने के लिए उठाया गया था। लेकिन 15 साल तक यह कार्यक्रम चलाए जाने के बावजूद हालात नहीं सुधरे। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2001 में ग्रामीण इलाकों में शौचालयों का उपयोग बमुश्किल 22 फीसदी था। जबकि इस कार्यक्रम के तहत वर्ष 1990 से 1998 के बीच कुल 660 करोड़ रुपये खर्च हुए और 90 लाख से ज्यादा शौचालयों का निर्माण हुआ था।
इस कार्यक्रम की कमियों को भांपते हुए केंद्र सरकार ने वर्ष 1999 में संपूर्ण स्वछता अभियान (टीएससी) की शुरुआत की। इस अभियान के तहत वर्ष 2017 तक देश से खुले में शौच की प्रथाको मिटाने का लक्ष्य रखा गया। इस अभियान में स्थानीय समुदायों को भी अहमियत दी गई। साथ ही जागरुकता अभियान पर बल दिया जाने लगा। पहले के अभियान में ये कमियां थीं। फिर भी अभियान का जोर शौचालय निर्माण पर ही रहा। संपूर्ण स्वच्छता अभियान को मजबूती देने के लिए सरकार ने 2003 में ‘निर्मल ग्राम पुरस्कार’ की शुरुआत की। इसके तहत ऐसे गांव, ब्लॉक, जिले और राज्यों को पुरस्कृत किया किया जहां खुले में शौच की प्रथा को समाप्त किया गया, लेकिन पुरस्कार पाने के बाद गांवों में दोबारा से खुले में शौच की आदत की ओर जाने लगे। 2014 में राष्ट्र स्तरीय निगरानी रिपोर्ट के अनुसार निर्मल ग्राम पुरस्कार पाने वाले 30 गांव दोबारा से पुराने ढर्रे पर लौट आए।
…तो बनाना होगा हर सेकंड एक शौचालय :
पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार अक्टूबर, 2019 का लक्ष्य पूरा करने के लिए 36 महीनों की समयावधि में 8.24 करोड़ शौचालय बनाने होंगे। अगर सरकार दिन-रात काम करे तो अगले 36 महीनों तक प्रति घंटा 3,179 शौचालय या प्रति सेकंड एक शौचालय का निर्माण जरूरी है।
उत्तराखंड में 2015-16 में बने 6,286 शौचालय :
उत्तराखंड में वर्ष 2015-16 में कांग्रेस की सरकार के कार्यकाल के दौरान 6,286 शौचालयों का निर्माण किया गया। जबकि 2021 तक लक्ष्य पूरा हो पाएगा। उत्तराखण्ड के कुछ जिलों को तो ओडीएफ तक घोषित कर दिया गया है लेकिन अभी तक गांवों में शौचालय ही नहीं बन पाये हैं. स्थिति यह है कि ग्रामीण तो दूर दिहाड़ी-मजदूरी करने वाले नेपाली मूल के मजदूर लोग भी खुले में शौच करने को मजबूर हैं। ऐसे जिलों को कैसे ओडीएफ घोषित कर दिया गया ये चौंकाने वाली बात है।