उत्तराखंड की राजधानी – एक भावनात्मक सवाल
डीबीएल ब्यूरो:
सरकार और नौकरशाहों की गतिविधियां और कार्यशैली केवल देहरादून तक ही सिमटी हुई दे रहीं दिखाई
राज्यवासियों के बीच राज्य की राजधनी से जुड़ा मुद्दा एक भावनात्मक प्रश्न है, जिसके सम्बंध में अभी निर्णय लिया जाना शेष
उत्तराखंड में राजधानी के मुद्दे पर अभी तक की राज्य की सत्ताधारी सरकारें प्रदेश के लोगों को विकास और गैरसैंण को राजधानी बनाने का वायदा तो करते आए हैं लेकिन किसी भी सरकार की तरफ से कोई भी मजबूत पहल जमीनी हकीकत नहीं बन पाई। राज्य गठन के डेढ़ दशक से भी अधिक समय बीतने के बाद भी अस्थायी राजधानी देहरादून से ही सरकार के कामकाज निपटाए जा रहे हैं। सरकार और नौकरशाहों की गतिविधियां और कार्यशैली केवल देहरादून तक ही सिमट कर रह गई हैं। शायद यही वजह है कि राज्यवासियों के बीच एक नए आंदोलन की आवाज सुनी जा सकती है।
क्या चमोली जिले के गैरसैंण को उत्तराखंड की राजधानी बनाया जाना चाहिए या फिर वर्तमान समय में देहरादून जो राज्य की अंतरिम राजधानी है को ही स्थायी राजधानी का दर्जा दिया जाना चाहिए। बेहतर होगा कि यह निर्णय जनता को तय करने का अवसर दिया जाना चाहिए। जबकि प्रदेश के लोगों की भावनाओं के पटल पर केन्द्रित उत्तराखंड की राजनीति ने गैरसैंण मुद्दे का जमकर दुरुपयोग किया है। राजनीतिक दल अपने लाभ के लिए संकीर्ण गैरसंैण कार्ड खेलने में व्यस्त हैं। गैरसैंण में एक दो दिवसीय हंगामेदार विधानसभा सत्र, जिसमें अव्यवस्था और आरोपों के अलावा अन्य कोई भी परिणाम नजर नहीं आया। राज्यवासियों के बीच राज्य की राजधानी से जुड़ा मुद्दा एक भावनात्मक प्रश्न है, जिसके सम्बंध में अभी निर्णय लिया जाना शेष है।
आज से 17 साल पहले जब उत्तरप्रदेश के कुछ जनपदों को अलग कर उत्तराखंड का निर्माण किया गया था, उस समय यहां के लोगों की अधूरी आकांक्षाएं ही राज्यव्यापी आंदोलन का मुख्य ताकत थीं। लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप भौगोलिक रूप से गढ़वाल और कुमाऊं मंडल के केंद्र में स्थित गैरसैंण को भविष्य की राजधानी के रूप में प्रस्तुत किया गया था। हालांकि, इसके स्थान पर देहरादून को अंतरिम राजधानी बनाया गया और जो अभी तक जारी है। इस बीच, इसने अभी तक शासन के प्रबंधन के लिए आवश्यक चरमराती बुनियादी सुविधाओं का निर्माण कठिनता से किया है।
“उत्तराखंड की राजधानी के रूप में गैरसैंण” को पेश करने वाले समर्थकों के पास जोरदार तर्क हैं। वे दावा करते हैं कि राज्य के भौगोलिक परिपेक्ष पर आधारित शासन के मॉडल से ज्यादा तेजी से विकास होगा। उनकी यह भी सोच है कि इस पहल से नीति निर्माताओं की मानसिकता में महत्वपूर्ण परिवर्तन होगा। मौलिक सुविधाओं का विकास होगा और रोजगार के अवसर उत्पन्न होंगे। राज्य में लगातार जारी पलायन की दर घटेगी और लोगों की परेशानियां कम हो जाएंगी।
गैरसैंण राजधानी का विरोध करने वाले लोगों का तर्क भी उतना ही सशक्त और दमदार हैं। उनका कहना हैं कि राज्य के पूर्वी और पश्चिमी भागों से गैरसैंण तक पहुंचना आसान नहीं है। मोरी, पुरोला, पिथौरागढ़ और अन्य स्थानों से गैरसैंण पहुंचने में 2 से 3 दिनों का समय लगता हैं। राज्य के पहाड़ी इलाकों में सड़क मार्ग का अविकसित होना भी इस राह में एक बड़ी बाधा है। पर्यावरण सम्बंधी चिंताएं मुंह बाये खड़ी हैं। उनका तर्क हैं कि प्रस्तावित राजधानी क्षेत्र की परिस्थितियां और क्षमता सीमित है। वित्तीय संकट से जूझ रहे उत्तराखंड के लिए, नई राजधानी के निर्माण के लिए धनराशि की व्यवस्था कैसे होगी, यह भी एक यक्ष प्रश्न है?
दुर्भाग्यवश इस विषय पर राजनीतिक दलों ने अभी तक निम्न स्तर की परिपक्वता का परिचय दिया है। राजधानी से जुड़ी बहस केवल अधिक से अधिक भवनों के निर्माण तक केंद्रित होकर रह गई है। यह स्पष्ट रूप से निर्माण और ‘स्वयं’ के भाव के साथ अपने लोगों को लाभ पहुंचाने की मानसिकता दर्शाने वाला तथ्य है। यह विषय राज्य के लोगों के हक-हकूक के लिए भी गंभीर सवाल पैदा करता है। राज्य का विकास किसी भी राजनैतिक पार्टी के एजेंडे में अहम लक्ष्य होता है, तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कौन-सी राजधानी आवश्यक प्रोत्साहन प्रदान करेगी? क्या दो राजधानियों का निर्माण उचित हैं? क्या गर्मियों और सर्दियों के लिए अलग-अलग राजधानियों का निर्माण औपनिवेशिक मानसिकता का परिचायक नहीं है?
विगत और वर्तमान दोनों भविष्य का दर्पण होते हैं। देहरादून के उदाहरण से बहुत कुछ सीखा जा सकता हैं। राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित होने के बाद, यह नगर अपनी विशेषता और आकर्षण खो चुका है। राजधानी नहीं होने के बावजूद हरिद्वार का विकास राज्य के औधोगिक केंद्र के रूप में किया गया हैं। अन्य क्षेत्र अपनी-अपनी शक्ति के आधार पर विकसित हुए हैं। इस ज्वलंत समस्या से निपटने के लिए राज्य की सरकार को अपना ऐनक उतारकर इस समस्या का स्थायी समाधान ढूंढने की जरूरत है। किसी भी शहर को राजधानी के रूप में घोषित करने मात्र से उत्तराखंड की चिरकालिक समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता।