लोक सभा चुनाव-2019 : मीडिया को कायम रखनी होगी विश्वसनीयता
डीबीएल ब्यूरो
वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए चुनाव आयोग अपनी पूरी तैयारी में जुटा है। मौजूदा दौर में चुनाव के दौरान सोशल मीडिया काफी अहम भूमिका निभाता है, ऐसे में सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों के बीच नफरत फैलाने वाली पोस्ट के खिलाफ चुनाव आयोग ने अपनी कमर कस ली है। इसके लिए चुनाव आयोग ने एक पैनल का गठन किया है जोकि व्हाट्सएप, फेसबुक और यूट्यूब पर इस किसी भी तरह के भड़काऊ कंटेंट पर नजर रखेगा।
मीडिया अथवा जनसंचार माध्यम किसी भी समाज या देश की वास्तविक स्थिति के प्रतिबिंब होते हैं। देश के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक फलक पर क्या कुछ घटित हो रहा है, इससे आम जन-मीडिया के द्वारा ही परिचित होते हैं। जनसंचार माध्यमों के विभिन्न रूपों ने आज दुनिया के लगभग हर होने तक अपनी पहुँच बना रखी है। मीडिया की शक्ति का आकलन उसकी व्यापक पहुंच के मद्देनजर किया जा सकता है। लेकिन इतनी शक्तियों और लगभग स्वतंत्र होने की वजह से मीडिया की देश और समाज के प्रति महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी है, इसीलिए लोकतंत्र में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद मीडिया को चैथा स्तम्भ माना जाता है।
साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक समाचार पत्र और पत्रिकाओं में राजनीतिक जीवन और सामाजिक-आर्थिक विषयों का विस्तृत विवेचन होता है जिसे पढ़कर जनता लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अधिकाधिक भागदारी प्राप्त करती है। प्रेस द्वारा पैदा की गई जन-जागरूकता ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने में अमूल्य योगदान दिया। आजादी के बाद यह जरूरी था कि सरकारी नीतियों एवं विकास कार्यक्रम को आम आदमी तक पहुंचाया जाए और समाचार-पत्रों ने इस कार्य को बखूबी अंजाम दिया। वहीं सरकार प्रयासों के फलस्वरूप साक्षरता के तथा आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ-साथ समाचार-पत्रों की संख्या और उनके प्रसार में भी तेजी से विस्तार हुआ है आज तो हम संचार क्रांति के युग में जी रहे हैं, जहां न सिर्फ संचार के अनेक माध्यम हैं, बल्कि सबसे पहले सूचना प्रसारित करने की होड़ मची है।
लोकतंत्र में समाचार माध्यमों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है। उनके द्वारा प्रकाशित अथवा प्रसारित और उस पर की गयी टीका-टिप्पणियों पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई जाती। अतः समाचार-पत्रों से अपेक्षा की जाती है कि उन्हें मर्यादित आचरण करना चाहिए। उन्हें किसी प्रकार की अफवाह की तह तक जाना चाहिए, जिससे सत्य को प्रकाश में लाया जा सके। ऐसे कई मामले देखने में आए हैं जिनसे देश में अफवाहों के माध्यम से साम्प्रदायिक दंगे तक फैला दिये जाते हैं, तोड़फोड़ की कार्यवाही कर सरकारी और निजी सम्पत्ति को क्षति पहुंचायी जाती है और कभी-कभी सत्ता परिवर्तन में भी सफलता प्राप्त की जाती है। उत्तेजनात्मक समाचारों से समाचार-पत्र की बिक्री बढ़ती है किंतु इसका कोई दीर्घकालिक लाभ नहीं मिलता। इससे जनता तुरंत तो भ्रमित होती है, किंतु बाद में सच का पता लगने पर उस समाचार-पत्र की साख भी प्रभावित होती है। मीडिया समाज की सजग प्रहरी है। चुनाव में प्रेस की भूमिका अहम होगी, इसलिये मीडिया कर्मी अपने दायित्वों का निर्वहन करें। खबर की सत्यता प्रमाणित होने पर ही उसका प्रकाशन किया जाये। समाचार को संपादन करने वाले स्टाफ को भी यथेष्ट सजगता का परिचय देना चाहिए।
जनमत का प्रतिनिधित्व करने के कारण समाचार-पत्रों की आवाज को सुनना तथा उस पर जरूरी निर्णय लेना लोकतांत्रिक सरकार के लिए लगभग बाध्यकारी होता है। समाचार-पत्रों के विश्लेषण एवं लेखों से चुनावी परिणामों पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। बड़ी संख्या में मतदाता समाचार-पत्रों की खबरों को आधार बनाकर अपना मतनिर्णय करते हैं। इस प्रकार समाचार-पत्र किसी पार्टी या व्यक्ति के पक्ष में चुनावी लहर को जन्म देने वाले मुख्य अभिप्रेरक होते हैं।
इसे विडम्बना ही कहा जा सकता है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में बढ़ती व्यावसायिकता ने समाचार-पत्रों के सामाजिक उत्तरदायित्वों को किनारे रख दिया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ‘अभिव्यक्ति की प्रतिबद्धता’ का पर्याय मान लिया गया है। पत्रकारिता आज एक लाभदायक व्यवसाय बन चुकी है, जिसमें त्याग, समर्पण, सामाजिक जागरूकता की बजाए, सिफारिश एवं गुटबंदी की प्रधानता है। पत्रकारों द्वारा जनहित को समाचारों का लक्ष्य बनाने की बजाए दलाली एवं कमीशन-खोरी के आधार पर समाचारों का विकृतिकरण किया जा रहा है। बढ़ती व्यावसायिकता ने जनहित की समस्याओं को पीछे धकेलकर विज्ञापन एवं चटपटी खबरों को समाचार-पत्रों का मुख्य अंग बना दिया है। अधिकांश समाचार-पत्रों द्वारा सामान्य जन की भाषा को तिरस्कृत करके, अभिजात्य वर्गीय संस्कृति को केन्द्र में रख दिया गया है।
मीडिया को यह अधिकार है कि वह प्रशासन की विफलताओं तथा भ्रष्ट अधिकारियों अथवा कर्मचारियों के काले कारनामों का पर्दाफाश करे। किंतु अफसरों से अनावश्यक विज्ञापन प्राप्त करने अथवा धन उगाही के लिए उनका भयादोहन करने का प्रयास निदंनीय है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लोगों का नैतिक हा्रस हुआ। ऐसी स्थिति में राजनीतिक दलों का एकमात्र उद्देश्य ‘येन केन प्रकारेण’ सत्ता-प्राप्ति ही रह गया है। राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक जीवन में असत्य का व्यवहार, झूठी घोषणाएँ, पृथक्तावादी आंदोलन और साम्प्रदायिक मतभेदों की स्थिति को जन्म दिया जाता है। मीडिया को इस तथ्य पर भी ध्यान देना होगा कि भारत में अनेक राजनीतिक दल क्षेत्रीय, पृथक्तावादी और संकीर्ण आधारों पर गठित हैं। इन राजनीतिक दलों के द्वारा नागरिकों में राष्ट्रीय दृष्टिकोण उत्पन्न करने के बजाए उनमें ऐसे संकुचित दृष्टिकोण को जन्म दिया जाता है, जिससे नागरिक स्वस्थ लोकमत के निर्माण का कार्य कर ही नहीं पाते। इस स्थिति का मुकाबला राष्ट्रीय टीवी चैनल अधिक आसानी से कर सकते हैं। विभिन्न टीवी चैनल सम्पूर्ण भारत में ही नहीं विदेशों में भी देखे जाते हैं, अतः ये अपना दृष्टिकोण सदा राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर ही बनाते हैं और इन्हें ऐसा करना भी चाहिए।
शक्तियों और अधिकारों के उपभोग के साथ मीडिया को अपनी जिम्मेदारियों एवं दायित्वों का निर्वहन भी अपने विवेक के अनुसार करना होगा। यह मीडिया की विश्वसनीयता और उसकी अबाध शक्तियों के लिए बड़ा आवश्यक है कि उस पर किसी भी प्रकार से उंगली न उठे। क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो न सिर्फ वह जनता में अपना विश्वास खो देगा, बल्कि लोकतंत्र के साथ बहुत बड़ा विश्वासघात भी होगा।