न्याय की शुलभता को उच्च न्यायालय की एक से अधिक बेंच/पीठ जरूरी
रोहित श्रीवास्तव :
हर शनिवार जब आप कोर्ट परिसर आओगे तो आपको लगेगा आज कोर्ट में रोज जैसी हलचल नहीं है। नोटिस बोर्ड पर नजर जाएगी तो पता चलेगा आज काम नहीं होगा तारीख मिल जाएगी क्यों कि हड़ताल है, लेकिन ये हड़ताल है क्यों? पिछले ३८ साल से हर शनिवार कोर्ट परिसर में काम क्यों नही होता…?
संविधान के जरिये संविधान सभा में जो वचन दिए गये हैं वो वचन ही देश का शासन है और संविधान ने न्याय के लक्ष्य के लिए, न्याय की पहुँच में आने वाली बाधाओं को दूर करने का कर्तव्य राज्य को सौंपा है। न्याय की पहुँच से मतलब है कोर्ट अर्थात न्यायालय तक पहुँच या रास्तों को आसान करना। ताकि जैसे ही किसी भी भारतीय नागरिक को अपने अधिकारों पर या संवैधानिक मूल्यों पर खतरा महसूस हो वह न्यायालय तक आसानी से पहुँच सके।
संविधान सिर्फ हमारे मूल अधिकारों की बात नही करता बल्कि हमारे मूल कर्तव्यों एवं राज्य के निति निदेशक तत्वों के बारे में भी बताता है। मतलब यह कि राज्य नीतिगत फैसले लेते समय किन तत्वों को ध्यान में रखेगा? एक नागरिक के तौर पर हमें किन संवैधानिक मूल्यों का पालन करना है ? संविधान का अनुच्छेद-१४ के अनुसार राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नही करेगा।
संविधान का अनुच्छेद-२१ के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा अन्यथा नहीं। संविधान के अनुच्छेद-३९(क) के अनुसार प्रत्येक राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि न्यायिक तन्त्र इस प्रकार काम करे कि सामान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो। कोई नागरिक आर्थिक एवं अन्य निर्योग्यता के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाये इसलिए राज्य का यह कर्तव्य है कि वह उपयुक्त विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा।
तो यही वो बुनियाद है जिनपर पिछले ३८ वर्षों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश (अविभाजित उत्तराँचल/उत्तराखंड ) एवं २००० में अलग राज्य बन जाने के बाद उत्तराखंड में भी उच्च न्यायालय की बेंच/पीठ की मांग को लिए ३८ साल से ये आन्दोलन चल रहा है। यह आन्दोलन सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में ही नहीं बल्कि देश के अन्य राज्यों में भी चल रहे है। राज्य में उच्च न्यायालय की एक से अधिक बेंचें/पीठ स्थापित हो सकें ताकि उस राज्य के लोगों तक न्याय की पहुँच हो सके। अमूमन ऐसा माना जाता है उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय, आम लोगों के लिए नहीं है। ऐसे में अगर वहां तक उन लोगों की पहुँच को भी दुर्गम बना दिया जाये तो ये कहीं न कहीं राज्य द्वारा उसको सौंपे गये संवैधानिक कर्तव्यों की अवहेलना है।
वर्ष 1966 में इलाहबाद उच्च न्यायालय अपनी स्थापना की १००वी वर्षगांठ मना रहा था स यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जब 1858 में कंपनी शासन का अंत हो गया तो अंग्रेजी हुकूमत ने न्यायिक प्रक्रिया के एकीकरण के लिए 1861 में इंडिया हाईकोर्ट एक्ट ब्रिटिश संसद द्वारा पास किया गया जिसके तहत प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय का गठन किया गया स उत्तर प्रदेश का पहला उच्च न्यायालय 17 मार्च, 1866 में आगरा में उत्तर-पश्चिम जिलों के लिए स्थापित किया गया और सर वाल्टर मार्गों प्रदेश के पहले मुख्य न्यायाधीश बने स 1868 में उत्तर-पश्चिम प्रान्त के उच्च न्यायलय को आगरा से इलाहबाद स्थानांतरित कर दिया गया और 1919 में इसे ‘द हाई कोर्ट ज्युडीकेचर एट इलाहबाद’ का नाम दिया गया स भारत के आज़ाद होने के बाद चीफ कोर्ट अवध और इलाहबाद हाईकोर्ट का विलय कर इसे इलाहबाद हाईकोर्ट में समाहित कर दिया गया तथा 1 जुलाई, 1948 को अवध कोर्ट को लखनऊ खंडपीठ का दर्ज़ा दे दिया गया स
वर्ष 1955 में वादकारियों एवं उच्च न्यायालय पर काम के दबाव को देखते हुए उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्मंत्री डॉ. सम्पूर्णानन्द ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु से लखनऊ के अतिरिक्त प्रदेश में उच्च न्यायालय के अन्य पीठ/बेंच की मांग की जिसे उन्होंने अभी इसकी जरुरत नही है, कहकर ठुकरा दिया था। वर्ष 1980 में जब उच्च न्यायालय के अन्य पीठ/ बेंच की मांग ने जोर पकड़ा और धरने, प्रदर्शन, सेमिनार आदि शुरू हो गये तो उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्मंत्री नारायण दत्त तिवारी ने प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से मिलकर इस मुद्दे की गंभीरता पर बात की और इसके लिए आयोग के गठन की जरुरत बताई जिस पर इंदिरा गाँधी ने पूर्व जज सुप्रीम कोर्ट व मुख्य न्यायाधीश जम्मू एवं कश्मीर जसवंत सिंह की अगुवाई में एक 3-सदस्यीय न्यायिक आयोग का गठन किया जिसने पूरे राज्य का दौरा किया और अपनी रिपोर्ट सौंप दी जिसे 1986 में सार्वजनिक किया गया। जिसके तहत न्यायिक सुविधा एवं भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए आगरा, देहरादून एवं नैनीताल में उच्च न्यायालय के अन्य पीठ/बेंच की जरुरत बताई, लेकिन बाद में सरकारों द्वारा इसे अनेक चुनावी आश्वासनों के बाद ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया।
वर्ष 2009 में विधि आयोग ने 230वीं रिपोर्ट में अलग-अलग राज्यों में न्यायिक सुविधा को देखते हुए एक से अधिक उच्च न्यायालय की पीठ/बेंच का समर्थन किया और अपनी अनुशंसा दी, जिसके आधार पर केंद्र सरकार ने कर्णाटक में धारवाड़ एवं गुलबर्गा में दो बेंचों की स्थापना की जबकि उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड की भौगोलिक व सामाजिक स्थिति को देखते हुए जहाँ इसकी जरुरत थी वहां ऐसा नही किया गया स मुंबई में भी 3 बेंचे हैं, नागपुर, पणजी व औरंगाबाद स मध्यप्रदेश में जबलपुर के अलावा ग्वालियर और इंदौर में 2 बेंचे हैं। ऐसे में यह कहना कि अन्य राज्यों में एक से अधिक हाईकोर्ट बेंचे नही हो सकती, तर्कसंगत नही होगा ।
(लेखक पेशे से अधिवक्ता हैं। प्रस्तुत लेख में उनके अपने विचार हैं।)