
उत्तराखंड विधान सभा चुनाव 2017 में सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा व कांग्रेस सहित अन्य राजनैतिक दलों ने पलायन के मुद्दे को दूर करने की बात को अपने ऐजेंडे में प्रमुखता के साथ शामिल किया है। चुनावी दंगल शुरू होते ही नेताओं के एक पार्टी से दूसरी पार्टी में पलायन को देखकर यही कहा जा सकता है कि ऐसे हालातों में प्रदेश से पलायन रोकने की बात बेईमानी है। नेता अपने भविष्य और अपने वजूद को कायम रखने की खातिर पाला बदलने के खेल में मशगूल हैं। टिकट बंटवारे से पहले भाजपा और कांग्रेस हाईकमान का परिवाद और रिश्तेदारों की टिकट दिए जाने की पैरवी न करने के बावजूद धनबल और बाहूबल का वर्चस्व ही भारी रहा। ऐसे हालातों में नेताओं का स्वच्छ राजनीति और प्रदेश के विकास की बात करना साफतौर पर बेईमानी और हास्यास्पद नजर आ रहा है।
उत्तराखंड में पलायन की समस्या बेहद पुरानी होने के साथ लाइलाज होती जा रही है, जिसकी सबसे बड़ी वजह प्रदेश में आर्थिक संसाधनों का अभाव रहा है। राज्य आंदोलन के पीछे प्रदेश के लोगों की एकजुटता की एक बड़ी वजह यह भी थी कि यदि अपनी सरकार होगी तो युवाओं और भावी पीढ़ी को अपने ही प्रदेश में रोजगार के मौके व नौकरियां मिलेंगी। उन्हें घर छोड़कर दूसरे राज्यों का रूख नहीं करना पड़ेगा मगर हुआ इसके उलट, राज्य बनने के बाद यहां के राजनेताओं का सबसे ज्यादा विकास हुआ इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता क्यों कि उन्होंने पिछले 16 सालों में प्रदेश के विकास को लेकर सिर्फ और सिर्फ जनता को बरगलाने का ही काम किया। इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि विकास की राह तक रहे प्रदेशवासी चुनावी माहौल में अब सिर्फ दर्शक दीर्घा में बैठे दिखाई दे रहे हैं।
इस बार के विधान सभा चुनाव को लेकर उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस ने सभी 70 विधान सभा सीटों पर अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है। टिकट बंटवारे के बाद मचे घमासान को शांत करने के लिए दोनों ही दलों का पूरा फोकस टिकट न मिलने से रूठे कार्यकर्ताओं को मनाने में लगा है। इस बात की पूरी संभावना है कि टिकट न मिलने से नाराज कार्यकर्ता अब विभीषण के चरित्र को अपनाकर अपनी जीत से ज्यादा पार्टी की हार को तवज्जो देंगे। प्रदेश से पलायन रोकने, जनता की जरूरतें और प्रदेश के लचर हालातों को पटरी पर लाने के वायदे सब कुछ चुनावी माहौल में हासिये पर पहुंच गए हैं।
यहां के नेताओं में प्रदेश के विकास की इच्छाशक्ति न जाने कब विकसित होगी, लेकिन उनकी स्वयं की आकांक्षाएं और स्वयं को पूरी तरह से सम्पन्न बनाने की कामनायें जरूर परवान चढ़ चुकी हैं। वहीं प्रदेशवासी नेताओं के राजनीतिक के खेल का हिस्सा बनने को मजबूर हैं आखिरकार उन्हें अपने मताधिकार का प्रयोग तो करना ही है। अब देखना यह है कि जनता जिन प्रत्याशियों को विजयी बनाकर विधान सभा भेजेगी वे माननीय जनता की जरूरतों और अपने वायदों को किस हद तक पूरा करते हैं या फिर जनता को एक बार फिर से अगले चुनाव की इंतजार रहेगा।
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