पहाड़ की पीड़ा – पलायन
शिक्षाविद् विक्रम भण्डारी सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर अपनी लेखनी से आवाज बुलंद करने के लिए पहचाने जाते हैं। उनका कहना है कि इसे विडम्बना ही कहा जा सकता है कि बीते 18 सालों में उत्तराखंड की सरकारें पलायन के मुद्दे को अपने एजेंडे में प्रमुखता के साथ रखती रही हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद पहाड़ की इस पीड़ा से उनका दूर-दूर तक वास्ता नहीं रह जाता है। प्रदेश में मूलभूत सुविधाओं की कमी के चलते लगातार जारी पलायन की वजह और कुछ बुद्धिजीवियों के प्रयासों पर प्रस्तुत है उनका लेख -ः
अपने खूबसूरत प्राकृतिक नजारों से सैलानियों को लुभाते पहाड़ों की पीड़ा भी पहाड़ जैसी है। नये जमाने की सुविधाओं से दूर और निरंतर प्राकृतिक आपदाओं की मार झेलते पहाड़ों में अब लोगों को अपनी जड़ों से उखड़ने को विवश कर दिया है।
पलायन का पहाड़ से बहुत पुराना रिश्ता रहा है। पुराने समय से ही यहां के लोग रोजगार की तलाश में मैदानी शहरों की ओर रूख करते रहे हैं लेकिन उस समय अपने गांव व माटी से उनका रिश्ता जुड़ा रहता था। नौकरी पूरी करने के बाद वे अपने घर वापिस लौट आया करते थे। पिछले कुछ दशकों से शिक्षा के प्रचार-प्रसार और संचार के साधनों की पहुंच ने नई पीढ़ी को आधुनिक जीवन शैली की ओर आकर्षित किया है जिसके चलते पहाड़ के आबाद गंाव वीरान हो गए हैं। पहाड़ के अधिकतर युवा जिन शहरों में नौकरी करते हैं, वहीं के होकर रह गये। बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा व चिकित्सा तथा रोजगार की सुविधाओं के अभाव में पहाड़ से पलायन लगातार बढ़ता गया। भौतिकवाद और बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं ने पलायन की गति को और अधिक तेजी प्रदान की है।
पहाड़ में तकरीबन 90 फीसदी युवा इंटर पास हैं, इससे आगे की पढ़ाई व व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए उनके पास संसाधनों का अभाव है। कमजोर आर्थिक कारणों के चलते कुछ युवा सेना में भर्ती हो जाते हैं और बाकी रोजगार की खातिर निराशा की स्थिति में महानगरों व शहरों की ओर निकल पड़ते हैं। पहाड़ और अपने गांव में रहकर बकरी चराना या खेतों में हल लगाना इन्हें रास नहीं आता है। इन युवाओं को होटलों, दुकानों व माॅल में छोटीमोटी नौकरी करते हुए देखा जा सकता है। स्मार्ट टीवी, स्मार्ट फोन और ब्रांडेड कपड़ों के इस युग में पहाड़ का युवा भी कहीं खो गया है। एक बार गांव से निकलने के बाद दोबारा लौटने का उनका मन ही नहीं करता। सरकारों की उदासीनता के चलते कहीं न कहीं उनकों भी लगता है कि पहाड़ में रहकर भविष्य के सपने नहीं बुने जा सकते हैं।
उत्तराखंड में मूलभूत सुविधाओं की कमी के अलावा प्राकृतिक आपदाओं ने भी लोगों को पलायन के लिए मजबूर किया है। विगत एक दशक से रुद्रप्रयाग, चमोली गढ़वाल और पिथौरागढ़ में बादल फटने और भूस्खलन की घटनाओं ने कई परिवार बरबाद कर दिए। खासकर केदारनाथ आपदा ने स्थानीय निवासियों को बहुत ही ज्यादा खौफजदा कर दिया। ऐसी परिस्थितियों में नई पीढ़ी की सुरक्षा और अच्छे भविष्य के लिए सक्षम लोगों ने बड़ी संख्या में शहरों की ओर पलायन किया है।
पलायन की समस्या इतनी गंभीर है कि इस बात ने राज्य सरकार को पलायन आयोग की स्थापना करने को मजबूर कर दिया, लेकिन दृढ़ इच्छा शक्ति और दूरदृष्टि की कमी के चलते यह आयोग सफेद हाथी साबित हो रहा है। सरकार लोगों के मन में विकास व रोजगार को लेकर विश्वास कायम करने में नाकामयाब रही है। ऐसे हालातों के बीच भी कुछ लोग उम्मीद का छोटा-सा दीया जलाये हुए हैं। इन्हीं में से एक हैं चमोली गढ़वाल स्थित होस निवासी वर्तमान में देहरादून में पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतिष्ठित अर्जुन सिंह बिष्ट। इन्होंने सूबे के शासन-प्रशासन की सहायता व स्थानीय लोगों की मेहनत के दम पर होस क्षेत्र में मूलभूत सुविधायें जुटाकर खेती को रोजगार से जोड़कर एक सराहनीय कदम उठाया है। नकदी फसलों के अच्छे उत्पादन से किसानों की आय बढ़ी है। इसी तरह के प्रयासों से जुड़े हैं भाजपा नेता व समाजसेवी दिगम्बर सिंह नेगी। इनका कहना है कि वह अपने पौड़ी गढ़वाल स्थित गांव में फिर से खुशहाली लाने का प्रयास कर रहे हैं। गांव के लोगों को फूलों की खेती व नकदी फसलों से जोड़ने के लिए आधुनिक तकनीक पर आधारित पानी के टैंक का निर्माण कर लिया गया है। बंजर खेतों से झाड़ियों को काटकर खेतों को संवारा जा रहा है। धीरे-धीरे पशुपालन और स्थानीय संसाधनों पर आधारित छोटे कामधंधों को भी विकसित करने की कोशिश जारी है।
इन्हीं चंद लोगों की तरह अगर सरकार और स्थानीय प्रशासन भी पलायन रोकने के लिए धरातल पर कार्य करे तो पहाड़ों को वीरान होने से जरूर बचाया जा सकता है।