सरकार की उपेक्षा और गैर जिम्मेदारी को बयां कर रही वनाग्नि
विक्रम भण्डारी, वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद्
उत्तराखंड के आसमां पर दूर-दूर तक उड़ता धुंए का गुबार और दहकते जंगल चीख-चीख कर सरकार की उपेक्षा और गैर जिम्मेदारी को बयां कर रहे हैं।
उत्तराखंड राज्य में 65 फीसदी हिस्सा वन क्षेत्र है। कुल वन क्षेत्र का 70 फीसदी हिस्सा आरक्षित वन क्षेत्र है। वनाग्नि के आंकड़ों पर गौर करें तो 1 अक्टूबर, 2020 से लेकर अब तक करीब 1297.43 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो चुके हैं। इस दावानल से 50 लाख से अधिक धनराशि की सरकारी व निजी संपत्ति भी नष्ट हो चुकी है।
जंगल की इस आग से प्रदेश का पौड़ी जिला सर्वाधिक प्रभावित है। यहां करीब आग लगने की करीब 92 घटनाओं में 217.4 हेक्टेयर वन क्षेत्र खाक हो चुका है। आग बुझाने के दौरान दो लोगों की मौत और अन्य के झुलसने की घटनायें भी सामने आई हैं। वन विभाग ग्रामीणों को वनाग्नि के लिए जिम्मेदार बता रहा है तो ग्रामीण वन विभाग पर फर्जी वनीकरण की असफलता को छुपाने का आरोप लगा रहे हैं।
उत्तराखंड के जंगलों में आग का भड़कना कोई नई बात नहीं है। पिछले 10 साल से यहां हर साल औसतन तीन हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र आग की भेट चढ़ जाता है। इस साल कम बारिश के चलते जंगलों में नमी की मात्रा भी कम है। मौसम विभाग के अनुसार पूरे प्रदेश में जनवरी से मार्च 2021 तक 54.9 मिमी बारिश ही दर्ज की गई है जो बहुत ही कम है। इन परिस्थितियों में वन क्षेत्र में बसी आबादी में रहने वाले ग्रामीण अपने खेतों में सूखा घास फूंकने के लिए आग लगाते हैं वही आग वन क्षेत्र तक पसर जाती है। चीड़ बाहुल्य वाले जंगल इस आग को भड़काने में अहम भूमिका निभाते हैं। वैसे ग्रामीण क्षेत्रों में यह मान्यता भी है कि अगर सूखे चारागाहों में आग लगा देंगे तो बरसात में अच्छी घास उगेगी।
प्रदेश में अधिकांश आबादी का जीवन पूरी तरह से वनों पर निर्भर है, लेकिन सरकारों के गैर जिम्मेदार रवैये के कारण और कठोर वन अधिनियम ने स्थानीय लोगों और जंगल के बीच लगाव को कम करने का काम किया है। हक हकूक प्रभावित होने के चलते लोगों में वन विभाग के खिलाफ नाराजगी भी है। ग्रामीणों का आरोप है कि वन विभाग के पास हर साल फायर सीजन में वनाग्नि पर नियंत्रण के लिए लाखों का बजट आता है किंतु विभाग के निकम्मेपन के कारण समय रहते इस दिशा में कोई भी पहल नहीं की जाती है। आग लगने पर भी वन विभाग नुकसान के आंकड़ों को कम करके दिखाता है।
उत्तराखंड के जंगलों में बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा की भरमार है। वनाग्नि के कारण होने वाले नुकसान में वन क्षेत्र के आंकड़े तो जारी कर दिये जाते हैं लेकिन वन्य जीव, पशु पक्षी और जड़ी बूटियों आदि के नुकसान के बारे में कोई भी तर्कसंगत जानकारी वन विभाग के पास नहीं होती है। उत्तराखंड के अधिकांश क्षेत्र में ग्रामीणों की गोशालायें घर से दूर वन क्षेत्र के पास होती हैं। रात में जंगल की आग में अक्सर पालतू मवेशी गोशालायों में ही आग की चपेट में आ जाते हैं। इस बार फिर से प्रदेश में बड़े पैमाने पर पशुधन की हानि हुई है। कई जगह तो आग घरों के भीतर तक पहुंच गई। आरक्षित वन क्षेत्र की सीमाओं में पिछले दशक में कई बाघ, भालू और शावक आग से जलकर दम दोड़ चुके हैं। कई क्षेत्रों में स्थानीय ग्रामीण वनों से जड़ी बूटी एकत्र करने का काम करते हैं। यह जड़ी बूटी जंगलों में पत्तियों के सड़ने से बनी खाद से पनपती हैं किंतु जब जंगल में पत्तियां ही नहीं रहेंगी तो बहुमूल्य जड़ी बूटियों का अस्तित्व भी खतरे में रहेगा।
गर्मी का मौसम आते ही जंगल की आग के लिए भले ही आरोप प्रत्यारोप का दौर एक बार फिर से शुरू हो गया है। सरकार केवल बजट जारी कर इस जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती। इसके लिए स्थानीय लोगों को जागरूक कर वनों से उनका पुराना रिश्ता नाता जोड़ा जाना बेहद जरूरी है। आग से जंगलों को बचाने के लिए टास्क फोर्स का गठन कर वन पंचायत, ग्राम पंचायत व समाजिक संस्थाओं को इस कार्य सहभागी बनाया जाना चाहिये। वन विभाग को आग बुझाने के लिए आधुनिक तकनीक व संसाधनों से लैस कराने के साथ ही फोरेस्ट गार्ड के आवश्यकतानुसार पदों पर नियुक्ति की जानी चाहिए। प्रदेश में एक फोरेस्ट गार्ड के भरोसे काफी बढ़े वन क्षेत्र की जिम्मेदारी है जो कि कतई भी न्यायसंगत नहीं है।
वनाग्नि से जलश्रोतों के अस्तित्व पर भी असर –
जंगल की आग प्राकृतिक जल श्रोतों के अस्तित्व के लिए भी खतरे का संकेत है। वनाग्नि स्थानीय आबादी के जलश्रोतों पर भी कहर बनकर टूटती है। आग से वनों की उपजाऊ मिट्टी के साथ ही जलश्रोतों के आसपास भू-कटान होता है जिससे जल श्रोतों के प्राकृतिक स्वरूप पर संकट छा जाता है। इस दौरान स्थानीय लोग पेयजल के लिए भटकने को मजबूर हो जाते हैं।